हूल दिवस : झारखंड के ‘दो वीर सपूत’ जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिलाकर रख दी थी
1857 के आंदोलन के पहले भारत में एक ऐसा विद्रोह हुआ था, जिसने अंग्रेजी हूकुमत की नींव हिलाकर रख दी थी। इस विद्रोह का चेहरा थे झारखंड के दो नायक सिदो और कान्हू। सिदो और कान्हू ने अपनी आदिवासी लड़ाकों की मदद से अंग्रेज सैनिकों को काफी नुकसान पहुंचाया था । 30 जून 1855 को आदिवासियों ने सिदो कान्हू के नेतृत्व में विद्रोह की शुरूआत की थी। इसी के मौके पर झारखंड में 30 जून को हूल दिवस के रूप में मनाया जाता है ।
कौन थे सिदो और कान्हू :
राजमहल की पहाड़ियों के पास बसे भोगनादिह गांव में 1820 के आसपास आदिवासी परिवार में सिदो कान्हू का जन्म हुआ था । जिस समय सिदो कान्हू का जन्म हुआ था, भारत में अंग्रेजी हूकुमत का आतंक था । दोनों भाई जब बड़े हुए उनके इलाके एक अंग्रेजी अधिकारी की रिपोर्ट के आधार पर आदिवासियों को व्यवस्थित कृषि करने के लिये कहा गया और साथ ही साथ इसे स्थायी स्थायी बंदोबस्त के दायरे में लाया गया, जिससे आदिवासियों को नुकसान होने लगा । स्थायी बंदोबस्त के कारण आदिवासियों के जंगल से कोई भी संसाधन निकालने और शिकार पर रोक लगा दी गयी। सिदो कान्हू के गांव भोगनादिह में भी अंगेजों की यह व्यवस्था लागू की गई, जिसके बाद दोनों भाइयों के मन में अंग्रेजों के प्रति असंतोष का भाव पैदा हो गया।
इसी बीच एक और घटना हुई, स्थायी बंदोबस्त की प्रक्रिया की वजह से स्थानीय महाजन भी उसे लागू कर दिये थे और जब कोई आदिवासी लगान चुकाने के लिये कर्ज लेता था, तो जरूरतमंदों की मज़बूरी का फायदा उठाकर साहूकार उनसे सादे कागज पर अंगूठे के निशान लगा लेते थे। जब आदिवासियों के पास लौटाने के लिए पैसे नहीं होते थे, तो वह वसूली के लिए जाते और उनके साथ बदसलूकी करते और कई बार उनकी हत्या कर दी जाती थी । इन साहूकारों का साथ देता था पंचकठीया तहसील का थानेदार महेश लाल दत्त, वह आदिवासियों पर जुल्म ढाता था । सिदो कान्हू ने जब इस घटना को आंखों से देखा तो उनका खून खौल गया और विद्रोह का मन बना लिया । इस विद्रोह में उन्हें छोटे भाईयों चांद और भैरव का भी साथ मिला । अब सबके लिये एकजुट होना सबसे बड़ी चुनौती थी, गांव के आदिवासियों ने ही इसका हल निकाला। आदिवासी युवकों ने गांवों गांवों में यह सूचना पहुंचाई कि सिदो के सपने में आदिवासी कुलदेवता आये थे और उसे आदिवासी भाईयों को शोषण से मुक्ति दिलाने को कहा है । बात फैल गई तो लोग सिदो कान्हो के साथ आ गये।
30 जून की रात पंचकठीया में करीब साठ हजार आदिवासी परंपरागत हथियारों के साथ जमा हुए और आदिवासियों को शोषण से मुक्ति दिलाने का संकल्प लिया गया । पंचकठीया के थानेदार महेश लाल दत्त तक इसकी सूचना पहुंची और वह अंग्रेज अधिकारी के आदेश के बाद सिदो कान्हो को गिरफ्तार करने मौके पर पहुंचा । मगर उग्र आदिवासियों ने महेश लाल दत्त की हत्या कर दी और संथाल हूल की घोषणा कर दी। इसके बाद आदिवासियों ने महाजन और साहूकरों के घरों को निशाना बनाया और कई लोगों की जान ले ली।
सूचना के बाद अंग्रेज अफसर क्विसलेण्ड भी कप्तान मर्टीलो के साथ भागलपुर से सेना सहित विद्रोह को दबाने आ गया। वर्तमान पाकुड़ जिले के संग्रामपुर नाम में दोनों गुटों के बीच भीषण युद्ध हुआ । आदिवासी जहां अपने परंपरागत हथियार से लड़ रहे थे, वहीं अंग्रेजी सेना आधुनिक हथियारों से मुकाबला कर रही थी, मगर शुरूआती लड़ाई में आदिवासी ही हावी रहे । पहाड़ों पर होने वाले गुरिल्ला युद्ध में निपुण सिदो कान्हू ने अंग्रेजों को जमकर नुकसान पहुंचाया। अंग्रेज अधिकारी कैप्टेन मर्टीलो ने रणनीति के तहत आदिवासियों को मैदानी इलाके में उतारा और यहां अंग्रेजी सेना भारी पड़ गई । आधुनिक हथियारों से लैस अंग्रेजी सेना के सामने आदिवासी टिक नहीं पाये और बड़ी संख्या में आदिवासी मारे गये। सिदो कान्हू के छोटे भाई चांद और भैरव भी गोलियों का शिकार हो गये। मगर आदिवासियों का संघर्ष जारी रहा। युद्ध झारखंड के निकलकर बंगाल के मुर्शिदाबाद और पुरूलिया तक पहुंच गया, जहां भी सिदो कान्हू मजबूती से लड़ाई लड़ रहे थे ।
26 जुलाई 1855 की एक रात जब सिदो कान्हू अपने साथियों के साथ अपने गांव आए हुए थे और आगे की रणनीति पर बना रहे थे, तभी एक मुख़बिर की सूचना पर अंग्रेज़ सिपाहियों ने दोनों भाइयों को गिरफ़्तार कर लिया और उन्हें घोड़े से बांधकर घसीटते हुए पंचकठीया ले जाया गया और वहीं बरगद के एक पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी गई ।